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    शतचंडी महायज्ञ में रामकथा के दूसरे दिन सती प्रसंग की सुंदर कथा सुनकर मंत्रमुग्ध हुए श्रोता

    रूद्रपुर खजनी के कोटही माता मंदिर परिसर में चल रहे शतचंडी महायज्ञ में रामकथा के दूसरे दिन सती प्रसंग की कथा सुनाते हुए व्यास पीठ से वृंदावन धाम से पधारे कथा व्यास मानस जी ने बताया कि,"एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया। मुनि ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का ज्ञान दिया। श्रीराम के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी सतीजी के साथ कैलाश को चले। उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे। शिवजी हृदय में विचार करते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है। मेरे सामने जाने से सब लोग जान जाएँगे। शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हुई, किंतु सतीजी यह भेद नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में भेद खुलने का डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे। वहीं रावण ने ब्रह्माजी से अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठ रही थी। इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और मारीच तुरंत कपट मृग बन गया। मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित आश्रम में आए और उसे खाली देखकर अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू भर आए।वे मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।
    भगवान का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं। शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र श्री रामचंद्रजी को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया।
    जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे। सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं। फिर उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती थी। उन्होंने सती प्रसंग का वर्णन करते हुए बताया कि भगवान शिव से अनुमति लेकर सती भगवान श्रीराम के दर्शन के लिए गई तो सीता जी का कपट पूर्ण वेश बनाकर भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने लगीं जिसे मायापति श्रीहरि ने पहचान लिया।सती को प्रणाम करते हुए,उनसे (वृषकेतु) शिवजी का हाल पूछा तो माता सती को बड़ी आत्मग्लानि हुई।
    उपस्थित श्रद्धालु श्रोताओं ने मंत्रमुग्ध होकर संगीतमय रामकथा सुनी और भक्ति भजनों की धुनों पर झूमते रहे।

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