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    उम्मीदें टूटने न पायें


     इस संसार मे प्रायः सभी सकारात्मक कृत्यों के मूल में कोई न कोई उम्मीद निहित होती है। उम्मीदें जब मूर्त रूप लेती हैं तो सकारात्मकता में वृद्धि होती है । किन्तु जब लगातार कई उम्मीदें टूटती जाती हैं तो सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति भी न चाहते हुए भी नकारात्मकता का शिकार होने लगता है । यह बात जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू होती है। पारिवारिक, सामाजिक ,आर्थिक, राजनीतिक या आध्यात्मिक कोई भी क्षेत्र हो हर क्षेत्र में , हर प्रकार के संबंधों में या स्थिति प्रायः दृष्टिगोचर होती है। हर व्यक्ति या संस्था का यह पुनीत कर्तव्य और दायित्व भी है कि वह उन व्यक्तियों, समाज और संस्थाओं की उम्मीदों को किसी भी सूरत में टूटने न दे जो उससे लगाई गई हैं। उम्मीदें पूरी होने पर जो खुशी या संतुष्टि मिलती है, उससे कई गुना दुःख उस समय होता है अब उम्मीदें टूटती हैं। फलस्वरूप ऐसे व्यक्ति , समाज या संस्था का प्रतिकार होने लगता है। आस्तिक व्यक्ति भी नास्तिकता की राह पकड़ने लगते हैं।
             भगवान कृष्ण ने विगत स्पृह रहकर निष्काम भाव से अपने कर्म करने का उपदेश दिया है। किंतु यह सहज नहीं है। तुलसीदास ने लिखा है कि - देव दनुज सबहीं की रीती, स्वारथ लागि करैं सब प्रीती। अर्थात देवताओं के लिए भी स्वारथ का त्याग करना सरल नहीं है तो मनुष्य स्वारथ या अपेक्षाओं का त्याग कैसे कर सकता है।
           जब कोई व्यक्ति किसी समाज की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो उसे उस समाज से वहिष्कृत कर दिया जाता है। जब कोई पुत्र पिता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो उसे नालायक कहा जाने लगता है। राजनीतिक पार्टियां अपने ऐसे सदस्यों को पार्टी से निष्कासित कर देती हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या जनप्रतिनिधियों के साथ भी ऐसा होता है?
            हमारे देश मे जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर समर्थन और वोट मांगें जाते हैं। पार्टियां जब किसी को टिकट देती हैं तो उससे जीतने के साथ पार्टी की नीतियों पर चलने व पार्टी को मजबूत करने की अपेक्षा के साथ जनता की सेवा करके जनता का विश्वास हासिल करने की उम्मीद रखती हैं। उम्मीदवार  अपने मतदाताओं से जिस आधार पर वोट मांगता है तो वोट देने वाले उसी प्रकार की अपेक्षाएं उससे करने लगते हैं। मतदाताओं से जब जाति, धर्म आदि के नाम पर वोट मांगा जाएगा तो जाति , धर्म के लिए ही काम करने की उम्मीद भी की जाएगी। जब संविधान के आधार पर, गरीबी, रोजगार मंहगाई, विकास के आधार पर वोट मांगा जायेगा तब इन मुद्दों पर काम करने की अपेक्षा की जाएगी।
              कोई जनप्रतिनिधि मतदाताओं या पार्टी की उम्मीदों पर  कितना खरा  उतरा है इसका फैसला अगले चुनाव में होता है जब उसे लोकतंत्र की प्रयोगशाला अर्थात चुनाव में जाना होता है। यहां पर उसकी परख दो स्तरों पर होती है। पहले पार्टी स्तर पर देखा जाता है कि यदि विगत कार्यकाल में उसके कार्यकलाप पार्टी के उम्मीदों पर खरे हैं तभी उसे टिकट दिया जाता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार यदि किसी का टिकट कटता है तो इसका सीधा सा अर्थ यह हुवा कि पार्टी उससे संतुष्ट नहीं है, उसे जनता के लिये उपयोगी या लायक नहीं मान रही है। यदि पार्टी की उम्मीदों पर खरा उतरा है तो उसे पुनः पार्टी का उम्मीदवार बनाया जायेगा। अब उसका परीक्षण जनता द्वारा मतदान के माध्यम से किया जाएगा। यदि वह मतदाताओं के उम्मीदों पर भी खरा रहा है , मतदाताओं के लिए काम किया है तो जनता उसके पक्ष में मतदान कर पुनः अपना प्रतिनिधि बनाएगी। यदि मतदाताओं के उम्मीदों  पर खरा नहीं उतरता है या जनता की नजरों में उसके प्रतिनिधि के लायक नहीं है तो जनता उसके खिलाफ मतदान कर अपना फैसला उसके प्रतिकूल देगी।
           अब महत्वपूर्ण प्रश्न , जिसका उत्तर खोजा जाना चाहिए कि जो प्रतिनिधि जनता द्वारा लायक नहीं समझा गया अथवा जनता द्वारा लायक नहीं समझा जाएगा इस भय से पार्टी द्वारा जिसे अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया अब वह किसी पुरस्कार के योग्य है?? क्या ऐसे जन प्रतिनिधियों या मंत्री को जनता के खून पसीने की कमाई से एकत्र कर राशि से सुख सुविधाएं , अनुदान या पेन्शन दिया जाना न्यायसंगत है? सरकार अपने कर्मचारियों को जो अपने जीवन के 30-35 साल सफल सेवा देकर अवकाश ग्रहण कर रहे उन्हें उनके जीवन के शेष अवधि (10-20 वर्ष) तक पेन्शन न देना  और जनप्रतिनिधि जो 5 साल तक सत्ता का सुख भोगकर अपने दायित्वों का सम्यक निर्वहन न करने से पार्टी या जनता द्वारा तिरस्कृत कर दिये गये हैं उनको जीवनभर (लगभग 50 वर्षों तक) पेन्शन देने का क्या औचित्य है? यह किसी भी प्रकार से न्यायसंगत नहीं है।
              मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि यदि कोई पार्टी अपने किसी विधायक या सांसद का टिकट काटती है अर्थात उसे लायक नहीं समझती है तो पिछले कार्यकाल में ऐसे व्यक्ति को टिकट देने की गलती पार्टी द्वारा की गई थी इसलिए उसके कार्यकाल में सरकारी कोष से ऐसे जनप्रतिनिधि पर किये गए समस्त व्यय उस पार्टी से वसूला जाना चाहिए तथा भविष्य में उसे कोई पेंशन आदि नहीं दी जानी चाहिये। यदि कोई विधायक या सांसद पुनः चुनाव नहीं लड़ता है या चुनाव लड़ने पर जनता द्वारा ठुकरा दिया जाता है तो उसे भविष्य में किसी प्रकार की पेंशन आदि नहीं दी जानी चाहिए। इससे राजनीतिक पार्टियों की जबाबदेही सुनिश्चित होगी, लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती मिलेगी तथा सार्वजनिक धन के अपव्यय पर रोक भी लगेगी।
    16/01/2016                    बी0 एन0 सिंह
                                                  प्रवक्ता
                                    श्री सरस्वती इंटर कालेज,
                                      रिसिया, बहराइच।

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