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    क्रोध रूपी चंडाल से हमेशा बचना चाहिए !आचार्य विनोद जी महाराज



    गोला! बांसगांव संदेश! 

    राम कथा के प्रकांड विद्वान आचार्य बिनोद जी महाराज ने राम कथा चर्चा के दौरान बताया कि विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था। विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। बहुत तप उन्होंने किया। पहले महाराजा थे,फिर साधु हो गये। वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे।
    विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं,मुझे ब्रह्मर्षि कहो।"
    वसिष्ठ मानते नहीं थे;कहते थे,"तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है,तुम राजर्षि हो।"
    यह क्रोध बहुत बुरी बला है।सवा करोड़ नहीं,सवा अरब गायत्री का जाप कर लें,एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।
    विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे। क्रोध में उन्होंने सोचा,'मैं इस वसिष्ठ को मार डालूँगा,फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा नहीं।'
    ऐसा सोचकर एक छुरा लेकर,वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वसिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वसिष्ठ आये ; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई।पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया। 
    विश्वामित्र सोच रहे थे,'अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वसिष्ठ अकेले रह जायेंगे,अभी मैं नीचे कूदूँगा,एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'
    तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा,"कितना मधुर चाँद है वह ! कितनी सुन्दरता है !"
    वसिष्ठ ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ। यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं। यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें।
    विद्यार्थी ने कहा,"महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं। स्थान-स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं।"
    वसिष्ठ बोले, "मैं जानता हूँ,मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है,मुझसे अधिक महान हैं वे,मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े। वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वसिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। एकदम वे नीचे कूद पड़े,छुरे को एक ओर फेंक दिया,वसिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले, "मुझे क्षमा करो !"
    बशिष्ठ प्यार से उन्हें उठाकर बोले, "उठो ब्रह्मर्षि !"
    विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, "ब्रह्मर्षि ? आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा ? परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं ?"
    वसिष्ठ बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। महापुरुष ! तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल (क्रोध) था,वह निकल गया।"

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