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    सलिल की दो सौ बीसवीं कड़ी : पूर्णमासीय काव्य सन्ध्या संगोष्ठी का आयोजन




    गोरखपुर। बांसगांव संदेश। अग्रहण्य मार्गशीर्ष पूर्णिमा के पावन तिथि में आयोजित हुई साहित्यिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था सलिल के मासिक परम्परागत होने वाले दो सौ बीसवीं कड़ी के मासिक काव्य गोष्ठी के अन्तर्गत पूर्णमासीय काव्य सन्ध्या संगोष्ठी का आयोजन। इस दो सौ बीसवीं श्रृंखला के काव्यगोष्ठी की सभाध्यक्षता भोजपुरी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर अरविन्द अकेला ने किया। साहित्य जगत में लेखनी के सशक्त हस्ताक्षर अवधेश कुमार शर्मा नन्द गोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।गोष्ठी का शुभारम्भ माँ सरस्वती के श्री चरणों में दीपोद्दीपन से किया गया। सरस्वती वन्दना भी सभाध्यक्षता कर रहे अरविन्द अकेला ने ही भोजपुरी विधा के वाक्य में प्रस्तुत किया। गोष्ठी में काव्य गोष्ठी का शुभारम्भ श्री गणेश करने के लिये मृदुत्पल नीलोर्मि गुप्त सूक्ष्म ने अपनी एक मार्मिक रचना प्रस्तुत किया - रहा रूठ जाना ही जब तब, इतना प्यार दिये क्यूँ, पुष्प पंखुड़ी ही दे देते,टूटा हार दिये क्यूँ?
    निर्मल कुमार गुप्त निर्मल ने अपने रचना के माध्यम से कहा - अँइठन में ही बइठन बनि ठनि के, सुन्दर शरीर रूपी गुफा में छुपल रहेली। नील कमल गुप्त विक्षिप्त ने मानव जीवन में अहम् के महत्व को बताते हुवे कहा - शुभ सभी का है आगमन। मनुष्य योनि जीवन परम। धरें यदि ये शिव संकल्प, प्रदुष्य रहित सन्मन्त्रमन। योगक्षेमम् वहाम्यहम्।बद्रीनाथ विश्वकर्मा सावरिया ने काव्य के माध्यम से माँ के पवित्र सम्बन्ध का भावुक वर्णन प्रस्तुत करते हुवे कहा - क्या बखान करूँ मैं माँ के आँचल का। बरगद के छाँव सा है माँ का आँचल। राम समुझ साँवरा की प्रशस्त भोजपुरी लेखनी जब मेला देखने वाली पर पड़ी तो वह कह पड़ी - ककही से माथ झारि के आईना निहार के। जात हऊ मेला घूमें, रहि ह सम्हारि के। राम सुधार सिंह सैंथवार ने भी आइना से ही बात को उठाते हुवे अपनी रचना को उठा लिया और उसे यों कहा - आईना बन कर जीओ, इमान बन कर साथ दो। बलिदान बन कर देशहित - उपकार बन कर हाथ दो। अरुण दास ब्रह्मचारी की पंक्ति जो इस प्रकार प्रकट हुई - मेरे रफीक तू अब दिलनवाज़ है कि नहीं, तुम्हारी सोच में अब भी फ़राज़ है कि नहीं। डॉ० अविनाशपति त्रिपाठी ऋषिपुत्र ने भी अपनी रचना के माध्यम से एक ठोस प्रश्न उठाते हुवे कहा - कौन हैं वे लोग, सनातन धर्म के रक्षक या भक्षक, जो मुगलिया भाषा में स्वयं को हिन्दू और अपने देश को हिन्दुस्तान बतलाते हैं। अवधेश कुमार शर्मा नन्द जो गोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान रहे, अपनी पंक्तियों में जीवन की यथार्थता को व्यक्त करते हुवे कहा - आपन वीराना न चिन्हले चिन्हाला। सीखते सिखत जिनगी बीति जाला। सभाध्यक्षता कर रहे भोजपुरी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर अरविन्द अकेला ने भी गोष्ठी में उपस्थित सभी कवियों के पंक्तियों की समीक्षा करते हुवे सबकी भावनाओं का दर्शन करवाते हुवे सबकी सराहना की और साथ ही साथ अपनी पंक्तियों में कहा - घाट बिना घटवार न भावत, मांझी बिना भय, नाव पुरानी। बिनु बादर बरखा नहीं भावत,शोभत नाव कहाँ बिनु पानी। सभा समापन के पूर्व गोष्ठी थोड़ी देर के लिये संवेदनशील हो गई जब उसे ज्ञात हुआ कि प्रायः गोष्ठी में अपनी सहभागिता अंकित करवाने वाले शायर व ग़ज़ल कार कौसर गोरखपुरी*‌ के पत्नी का आज ही इन्तकाल को प्राप्त हो गईं। उनके आत्मा की शान्ति निमित्त सभी उपस्थित कवियों ने उनके प्रति अपनी संवेदना श्रद्धा प्रस्तुत करते हुवे दो मिनट का मौन धारण कर उनके मृतक आत्मा के शान्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना किया और गोष्ठी का विसर्जन किया गया। आयोजन कर्ता नील कमल गुप्त विक्षिप्त ने समस्त कवियों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट किया।

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