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    रामजन्म भूमि आन्दोलन के योद्धा डॉ चंद्रभूषण तिवारी



    सदर,गोरखपुर

    सन 1990 का दशक था, देवरिया से चलकर गोरखपुर आए डॉ चंद्रभूषण तिवारी को अभी पांच वर्ष ही हुआ था की उन्हें राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ । उन दिनों डॉ तिवारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में निरंतर जाते थे जो भरत शाखा नाम से मोहद्दीपुर पावर हाउस में लगती थीं। इस शाखा का संचालन मुख्य शिक्षक विनोद माथुर करते थे और तात्कालिक प्रचारक शिव नारायण का बेहद मृदु स्वभाव युवाओं को बहुत भाता था l
    जब रामजन्म भूमि आंदोलन में कारसेवा की बात आई तो पूरे महानगर के प्रत्येक शाखाओं से टोलियां बनाई जाने लगी । इसी क्रम में प्रभात शाखा से दो टोली बनी जिसकी एक टोली में डॉ चंद्रभूषण , यशोदानंद  , सचिदानंद , अजय कन्नौजिया सहित 12 स्वयं सेवक थे और दूसरी टोली में शैलेश तिवारी, शैलेश यादव, नीरज सहित कई लोग रहे l  राम जन्मभूमि आंदोलन हेतु डॉ चंद्रभूषण की टीम का नेतृत्व महेश पाठक कर रहे थे । सभी लोग अपनी - अपनी साइकिल लेकर तैयार थे।वर्तमान नेतृव का निर्देश था की टोली का पहला पड़ाव महावीर छपरा होगा और फिर वहीं से छोटी- छोटी टुकड़ी बनाकर आगे बढ़ना होगा। डॉ चंद्रभूषण जी की टोली पुलिस से बचते हुए रास्ता बदल- बदल कर महावीर छपरा पहुंच गई क्योंकि पुलिस वाले एक साथ चार लोगों को जाते देख पकड़ कर पूछताछ शुरू कर देते थे । एसे में पुलिस से बचना भी एक बड़ी चुनौती थी । महावीर छपरा पहुंचने पर सभी लोगों को अयोध्या जाने का निर्देश प्राप्त हुआ।
    उसके बाद पूरी टोली ने कार सेवा हेतु यात्रा प्रारंभ कर दी। नेतृत्व द्वारा प्राप्त आवश्यक निर्देश में मुख्य मार्ग की बजाय रास्तों में बनाए गए सांकेतिक चिन्हों की सहायता से जाना था। डॉ चंद्रभूषण ने कहा की उन दिनों उनके साइकिल की स्थिति अच्छी नहीं थी ,तो उन्होंने अपने एक मित्र वीरेंद्र पांडेय से शाम तक लौटने के शर्त पर साइकिल उधार लेकर पुलिस से बचते हुए खेतों , मेड़ों से होकर अयोध्या के लिए निकल पड़े । 
       सभी टोलियों के लोग अपनी सायकिल में सब्जी खरीदकर टांग लेते थे की अगर पुलिस पकड़ेगी तो ये कह सकें की हम बगल के गांव में रहते हैं और सब्जी लेने आए थे, स्थानीय स्वयं सेवकों की सहायता से सामान्यतः हम लोगों की यात्रा रात में ही होती थी।  इसी प्रकार गोरखपुर से अयोध्या तक खाने- पीने की सामग्री ग्रामीणों  द्वारा उपलब्ध कराई जाती थी । 
    एक दिन राम जानकी मार्ग होते हुए जब हम लोग आगे बढ़ रहे थे और अगला रात्रि का भोजन महसो के राज परिवार द्वारा आयोजित था लेकिन महसो तक पहुंचने में शाम हो गई और तभी पुलिस का छापा पड़ गया और बचते हुए हम लोगों को वह जगह छोड़नी पड़ी l 
    सुबह का वक्त था हम लोगों को महसो नदी पार करना था पर वहा कोई नाविक नही था ,अंततः ग्रामीणों की मदद से किसी तरह  बिना पतवार के ही हम लोगों को नदी पार करनी पड़ी। इसके बाद अगला लक्ष्य सरयू तट था पर जैसे ही हम लोग सरयू तट से कुछ दूरी पर पहुंचे थे तभी पुलिस की एक टीम ने हम लोगों को गिरफ्तार कर प्रशासन को ये सूचना दी की कारसेवक पगडंडियों के रास्ते अयोध्या कुच कर रहें हैं। 

    *राम मंदिर के संघर्ष में कारसेवकों को सहनी पड़ी थी प्रताड़ना*

    कारसेवकों को गिरफ्तार करने के बाद एक चौकी पर ले जाया गया बाद मे वहा से कप्तानगंज थाने की जेल में बंद कर दिया गया ,थाने में कारसेवकों को  प्रताड़ित किया गया और भोजन भी नहीं दिया गया, इतनी प्रताड़ना सहनी पड़ी की कुछ कारसेवकों की स्थिति गंभीर हो गई। एक बार तो शाम के समय थाने में अफरा तफरी भी मच गई और भारी पैमाने में पुलिस बल हम लोगों के पास तैनात कर दी गई , जो कारसेवक पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए गए थे वो भयभीत थे एवं उनको लग रहा था की पुलिस बल मारने पीटने हेतु यहां आई है ।
    हम लोगों के साथ एक कारसेवक दाढ़ी बढ़ाए हुए गिरफ्तार किए गए थे,वो देखने में पूरी तरह से दूसरे संप्रदाय के दिखते थे और उनका प्रयास भी था कि उन्हें कोई कारसेवक के रुप में न पहचान पाए ,लेकिन उनकी गिरफ़्तारी के बाद वायरलेस सेट से पुलिस द्वारा सूचना दी जाने लगी की भारी पैमाने पर कारसेवक वेश बदल कर अयोध्या पहुंच रहें हैं।  इस मामले की जांच हेतु बस्ती जनपद के कप्तान उस कारसेवक के पास पहुंचे थे।उसके पश्चात हम लोगों को अस्थाई जेल खैर इंटर कालेज में लाया गया, वहां पहले से बंद कारसेवकों ने हमारा उत्साह के साथ स्वागत किया , जेल में हमारा प्रमुख नारा था "राम लला हम आयेंगे, मंदिर वही बनाएंगे"। जेल मे लगभग 800 से अधिक की तादात में कारसेवक रखे गए थे परंतु जेल में दस दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला । जेल में ही प्रातः संघ की शाखा , दिन भर भिन्न भिन्न कार्यक्रम, दोपहर, रात्रि का भोजन वितरण, रात्रि की परिचर्चाएं सब कुछ राममय था ।  हम लोगों को इस अस्थाई जेल में 28 अक्टूबर 1990 को बंद किया गया और लगभग 10 दिन पश्चात 6 नवंबर 1990 को वहां से छोड़ा गया । हम लोग अपनी-अपनी  साइकिल चलाते हुए लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए पुनः गोरखपुर पहुंचे , अब जब यह बातें याद आती हैं तो लगता है की गजब का उत्साह गजब का संघ का नेतृत्व था । आज 22 जनवरी को अयोध्या में प्रभु श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा से हमारा मन गदगद है की हुम कारसेवकों का त्याग बेकार नहीं गया।

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