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    बिना अभ्यास के विद्या, विष स्वरूप हो जाती है : प्रेमभूषण महाराज



    चौथे दिन की कथा मे बोले प्रेमभूषण महराज- मै और मेरा, तु और तेरा यही माया है...


    कौड़ीराम गोरखपुर। रामचरितमानस में भगवान श्री राम ने विद्या अध्ययन की सनातन प्रक्रिया सीखने का मार्ग सुझाया है। विद्यार्थी जीवन में प्रभु ने अपने आचरण से शिक्षण देने के साथ ही यह भी बता दिया है कि विद्या को फलित करने के लिए उसका निरंतर अभ्यास भी करते रहना चाहिए।
    उक्त बातें गोरखपुर के कौड़ीराम क्षेत्र स्थित चिउटहाँ बसावनपुर ग्राम में  प्रेमभूषण महाराज ने व्यासपीठ से चौथे दिन की कथा मे कही।   प्रेमभूषण महराज ने नौ दिवसीय श्रीराम कथा के चौथे दिन  प्रभु श्रीराम की बाल लीलाओं से जुड़े प्रसंग सुनाते हुए कहा कि निरंतर अभ्यास में नहीं रहने वाली विद्या समय पर काम में नहीं आती है और विष स्वरूप हो जाती है। विद्या को व्यवहार में उतारना अति आवश्यक होता है। 
    पूज्य श्री ने कहा कि मैं - मेरा, तू और तेरा यही माया है। इसी के प्रभाव से मनुष्य संसार में भटकते रहने को बाध्य होता है। मनुष्य को अगर अपरिग्रह सीखना है तो बच्चों से सीखने की जरूरत है। बच्चों को कभी भी किसी वस्तु का संग्रह करते हुए नहीं देखा जाता है। उनकी हर प्रकार की आवश्यकता की चिंता माता करती हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर जीव सर्वकाल भरोसे में रहे तो भगवान ही उसकी आवश्यकता की चिंता करते हैं।
    पूज्य श्री ने कहा कि जैसे गंगा जी जहां जहां प्रवाहित होती हैं, उस क्षेत्र को पावन कर देती हैं। ठीक उसी प्रकार जहां जहां कथा रस की वर्षा होती है, वहां के वातावरण और भगवतजनों को आलोकित कर देती है। भगवान भोलनाथ भी रामकथा को कामधेनु कहते हैं। रामकथा सुनने मात्र से सारे सुख प्रदान कर देती है, लेकिन कथा सत्संग का फल सत्कर्मों में निरन्तर गति रखने से मिलता है।
     पूज्य श्री ने कहा कि भक्ति कोई क्रिया नहीं है और अगर इसमें क्रिया सम्मिलित है तो वह भक्ति नहीं है। क्रिया के साथ की जाने वाली भक्ति को कर्मकांड कहते हैं। भगवान भोलेनाथ के इष्ट बालक राम हैं। बालकों में बड़ी निर्मलता होती है। बच्चों की बाललीला ब्रह्मभाव की होती है।
    मिथिला यात्रा प्रसंग का गायन करने के क्रम में महाराज श्री ने कहा कि पीठ पीछे जिसकी प्रशंसा होती है, वही वास्तव में प्रशंसा पाने के योग्य है। सम्मुख प्रशंसा तो लोग भय अथवा लोभ के कारण भी करते रहते हैं। सद्ग्रन्थ में कही गई बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसे कहने वाले लोग सामान्य नहीं थे। क्या कहा गया यह भी महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन किसके द्वारा कहा गया यह महत्वपूर्ण है। भारतीय संस्कृति का एक सहज स्वभाव है की मूल में कोई भूल नहीं होनी चाहिए। हमें अपने जीवन में यह अवश्य चिंतन करना चाहिए कि हम इतने लोगों के लिए मरते खपते हैं लेकिन हमारे लिए कौन? अगर आपके जीवन में आपके लिए चिंतन करने वाला कोई एक भी व्यक्ति है तो आप बड़े सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं।

     बिना शांत रहे भजन नहीं .....


    महाराजश्री ने कहा कि बिना शांत रहे भजन नहीं होता है। मन में यदि शांति नहीं हैं तो न चिंतन होता है और न कथा में मन लगता है। जब मन मस्तिष्क में बहुत सारे घटनाक्रम एक साथ चलते हैं तो मन शांत नहीं रहता है। फिर ऐसे में हम बच्चों को शांत रहने के लिए तो कह सकते हैं लेकिन खुद शांत नहीं रह सकते, क्योंकि शांति के लिए मन को एकाग्र करना बहुत जरूरी है। हमारे चित्त में जितनी निर्मलता रहेगी, मन भी उतना निर्मल हो जाता है। मन शुद्ध अन्न से बनता है। इसलिए कहते हैं जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन, जैसा पीओगे पानी, वैसी बनेगी वाणी। 
    उन्होंने बताया कि जो हम संसार को देते हैं,वही हमें बदले में प्राप्त होता है। हम ईमानदार हैं यह भाव अच्छा है,लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हैं कि बाकी लोग ईमानदार नहीं हैं, इसलिए हम ईमानदार हैं। हम भक्त हैं ऐसा अहंकार न पालें। उन्होंने बताया कि यह संसार तब तक सत्य है जब तक परमात्मा का बोध नहीं होता है, लेकिन जब हम यह जान लेते हैं कि इस संसार को बनाने वाले जगदीश है। परमात्मा का वास्तविक प्रबोधन हो जाए तो हमें यह जगत संसार मिथ्या लगने लगता है। हम इस संसार से धेला भी लेकर नहीं जाएंगे, यह ज्ञात होते ही परमात्मा में प्रीत बढ़ जाती है।

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